Saturday, 18 July 2015

हिन्दू धार्मिक अनुष्ठान पद्धति में कलश का महत्व......

हिन्दू धार्मिक अनुष्ठान पद्धति में कलश का महत्व......
यदि हम किसी धार्मिक कृ्त्य, रीति रिवाज, परम्परा इत्यादि को बिना अर्थ अथवा उसके महत्व को जाने हुए निभाते चले जाएं तो निश्चय ही यह हमारा अंधविश्वास माना जाएगा। मेरा मानना है कि जब तक धार्मिक प्रतीकों एवं मांगलिक कृ्त्यों तथा उनके विज्ञान को हम समझ न लें, तब तक केवल अंधविश्वासी होकर धर्म से जुडी इन सब बातों को मानने का कोई औचित्य नहीं है। हमारा धर्म, हमारी संस्कृति,वैदिक ऋचाएं, वैदिक मंत्र, पुराण उपनिषद आदि इन सभी ग्रन्थों के पीछे एक बहुत बड़ा विज्ञान है। हमारे ऋषियों ने जिन वैदिक ऋचाओं और पुराणों की कल्पना की, उपनिषदों के बारे में सोचा ओर फिर प्रतीकों का आश्रय लेते हुए मांगलिक कार्यो के लिए जैसी व्यवस्था नियत की, वह हमारे विज्ञान से किसी भी तरह से अलग नहीं है। उनके द्वारा सोची और की जाने वाली हर एक पहल हमेशा से ही विज्ञान के साथ रही है। इनमें से यदि एक भी बात अवैज्ञानिक हो जाती है तो हमारा जो चिंतन है, हमारी संस्कृति की जो पुकार है, वह बता देगी कि यह बात गलत है और इसे हमें नहीं मानना चाहिए।
आपने देखा होगा कि हिन्दू धर्म में प्राय: लोग विभिन्न त्यौहारों एवं पूजा उपासना के समय कलश की स्थापना करते हैं । विशेष रूप से किसी हवन अनुष्ठान के समय तथा नवरात्रि के दिनों में तो कलश की स्थापना अवश्य की ही जाती है । कलश जो कि हिन्दू धार्मिक अनुष्ठान पद्धति का एक प्रमुख अंग है,जिसे कि देवताओं के तुल्य स्थान दिया गया है । विभिन्न मन्दिरों में देवी देवताओं की प्रतिमाओं के साथ ही कलश की स्थापना भी की जाती है । जिनकों स्वर्ण एवं रजत पत्रों से सजाया जाता है,विभिन्न अलंकार एवं स्वास्तिक चिन्ह भी इस पर अंकित किए जाते हैं । लेकिन क्या आप कलश के महत्व से अवगत हैं ? आईये जानते हैं "कलश" का भारतीय संस्कृ्ति में क्या महत्व है ।
यदि आप सनातन संस्कृ्ति का गहन अध्ययन करें तो आपको ज्ञात होगा कि हमारे पूर्वज जीवन में सदैव भावना को ही प्रमुखता देते आए हैं । भावपूर्ण जीवन अर्थात भारतीय जीवन । जहाँ भावना बदलते ही जीवन का व्यवहार बदल जाता है। पत्थर को सिन्दूर लगाते ही भावना बदल जाती है ओर वही पत्थर हमारी दृ्ष्टि में हनुमान बन जाता है । भावना यानि जीवन ओर भावशून्यता अर्थात मृ्त्यु ।
देवे तीर्थे द्विजे मन्मे दैवज्ञे भेषजे गुरौ ।
यादृ्शी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृ्शी ।।
हमारे पूर्वज सूर्य को सिर्फ एक आग का गोला नहीं अपितु एक देवता समझकर उसकी आराधना करते आए हैं,वरूण को सिर्फ प्रकृ्ति का एक रूप ही नहीं माना गया बल्कि उसकी भी देवतुल्य स्तुति की गई है । यह कलश वास्तव में उन्ही वरूण देवता का प्रतीक चिन्ह है ।
सृ्ष्टि जब आरम्भ हुई तो शायद तब मानव ने ये सोचा हो कि वर्षा रूपी जल ही तो वास्तव में जीवन है । यदि वर्षा न हो तो पृ्थ्वी पर जीवन भी सम्भव नहीं है । वर्षा हमें जीवनदान देती है तो हमें भी उसका उपकार मानकर उसका पूजन करना चाहिए । परन्तु उसमें भी एक दिक्कत थी कि वर्षा तो साल में लगभग चार महीने ही होती है। तब हमारे ऋषि-मुनियों नें एक मार्ग निकाला कि कुआँ,तालाब,नदियों इत्यादि के जल को एक कलश में भरकर उसका पूजन करना प्रारंभ कर दिया ।( क्यों कि यदि विस्तृ्त दृ्ष्टि से देखा जाए तो पृ्थ्वी के समस्त जल का स्त्रोत्र तो वर्षा ही है ) इस मंगल भावना के साथ कालांतर में रसाधिराज वरूण देवता की उसमें स्थापना करके संस्कृ्ति के गौरवमय भव्य प्रतीक का सर्जन किया और उस कलश का पूजन प्रारंभ हुआ ।
कलश भारतीय संस्कृ्ति का अग्रगण्य प्रतीक है,इसीलिए तो महत्वपूर्ण सभी शुभ प्रसंगों में पुण्याहवाचन कलश की साक्षी मानकर किया जाता है । प्रत्येक शुभ कार्य के आरंभ में जिस तरह विघ्नहर्ता भगवान गणपति की पूजा की जाती है,ठीक उसी प्रकार से कलश की भी पूजा होती है । पहले कलश पूजन,फिर इसे नमस्कार और बाद में गणपति को नमस्कार्!... ऎसा प्राधान्य प्राप्त कलश और उसके पूजन के पीछे अति सुन्दर भाव छिपा हुआ है ।
भारतीय स्थापत्य शास्त्र में भी "कलश" का अनोखा महत्व है । जहाँ मंदिर होगा,वहाँ कलश अवश्य होगा । कलश जो कि अन्तिम लक्ष्य और पूर्णता का प्रतीक है। देवस्थान में जाकर भगवान के दर्शन करने के पश्चात भी यदि कलश के दर्शन नहीं किए तो दर्शन अपूर्ण माना जाता है । सन्त ज्ञानेश्वर नें गीता को मंदिर और उसके अंतिम अध्याय को "कलशाध्याय" नाम दिया है ।
कलश मानव देह का भी प्रतीक है । शरीर पवित्र है,सुन्दर है,दर्शनीय है....किन्तु कब तक? जब तक की जीवनरूपी जल और प्राणात्मक ज्योति उसमें विधमान है। निष्प्राण शरीर तो मूर्तिहीन् मंदिर के समान है । कलश का जल जिस तरह विशाल जलराशी का अंश है,उसी तरह देह रूपी कलश में बसी हुई जीवात्मा व्यापक चैतन्य का ही एक अंश है ।
'तत्वायामि ब्रहाणा वंदमानस्तदाशास्ते यजमानो हविर्भि: ।
अहेलमानो वरूणोहबोध्यु रूशसं मा न आयु: प्रमोषी: ।।'

No comments:

Post a Comment